Tuesday, 27 March 2018

मौन

हो शिक्षा या कि हो शादी  नहीं तुम बात सुनते हो
किया हर पल जो मन आया नहीं जज्बात सुनते हो
बताओ फिर स्वयं को क्यों कहा नारी के हो रक्षक
घरों में कैद बेटी को न तुम आजाद करते हो
वो घर की रोशनी सी है चमक उससे ही है घर की
महकता बाग का हर फूल उसने गन्ध यूँ भर दी
उसी को मौन कर तुमको है गौरव मर्द होने का
नरक से है बुरा यह मौन जीवन उम्र ढोने का
बढ़ाई शान तुमने सोचकर बिटिया विदा कर दी
मगर सच है कि उस इक मौन ने खुशियाँ विदा कर दी
कभी उसको भी सुन लेते जो तुमको पूजती हर पल
पिता के मान रख लूँ मैं सँजोया ख्वाब ये प्रति पल
जो उससे पूछ लेते "खुश हो बेटी" तो भला होता
अरे इक बार तो उसकी भी मंशा को सुना होता
मगर तुम हो पुरुष, फिर बाप हो, ये सोच भारी थी
मर्द होने की तुममें इक अजब सी ही बीमारी थी
तुम्हारी सोन चिड़िया आज भी रौनक से घर भरती
अगर एक बार भी उसकी भी तुमने राय ली होती
बहुत कुछ है सहा फिर सोचकर तब ही जहर खाया
हमेशा के लिए चुप होके उसने तुमको समझाया
"अरे जो बाप हो तो राय बेटी की भी सुन लेना
जो उसके ख्वाब खुशियों के हैं उसमें कुछ तो चुन लेना
महज कुछ गिफ्ट देकर बाँधना मत उसके जीवन को
वो खुलकर जी सके इसके लिए इक राह बुन देना"

No comments:

Post a Comment

प्रेम-पत्र

प्रिये! तुम कहाँ हो? कैसी हो? इन सबके बारे में मुझे कुछ नहीं पता। सिर्फ कल्पनायें कर सकता हूँ, कि जहाँ हो, कुशल से हो। बीते एक साल में जीवन...