हो शिक्षा या कि हो शादी नहीं तुम बात सुनते हो
किया हर पल जो मन आया नहीं जज्बात सुनते हो
बताओ फिर स्वयं को क्यों कहा नारी के हो रक्षक
घरों में कैद बेटी को न तुम आजाद करते हो
वो घर की रोशनी सी है चमक उससे ही है घर की
महकता बाग का हर फूल उसने गन्ध यूँ भर दी
उसी को मौन कर तुमको है गौरव मर्द होने का
नरक से है बुरा यह मौन जीवन उम्र ढोने का
बढ़ाई शान तुमने सोचकर बिटिया विदा कर दी
मगर सच है कि उस इक मौन ने खुशियाँ विदा कर दी
कभी उसको भी सुन लेते जो तुमको पूजती हर पल
पिता के मान रख लूँ मैं सँजोया ख्वाब ये प्रति पल
जो उससे पूछ लेते "खुश हो बेटी" तो भला होता
अरे इक बार तो उसकी भी मंशा को सुना होता
मगर तुम हो पुरुष, फिर बाप हो, ये सोच भारी थी
मर्द होने की तुममें इक अजब सी ही बीमारी थी
तुम्हारी सोन चिड़िया आज भी रौनक से घर भरती
अगर एक बार भी उसकी भी तुमने राय ली होती
बहुत कुछ है सहा फिर सोचकर तब ही जहर खाया
हमेशा के लिए चुप होके उसने तुमको समझाया
"अरे जो बाप हो तो राय बेटी की भी सुन लेना
जो उसके ख्वाब खुशियों के हैं उसमें कुछ तो चुन लेना
महज कुछ गिफ्ट देकर बाँधना मत उसके जीवन को
वो खुलकर जी सके इसके लिए इक राह बुन देना"

Tuesday, 27 March 2018
मौन
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