पनघट पनघट काँटे बिखरे
कैसे प्यास बुझाऊँ में ?
जहाँ कहीं मैं नजर घुमाता
गूँगे, अंधे, बहरे दिखते
काली करतूतें, जुबान,दिल
कालिख पोते चेहरे दिखते
काली सड़कों-सन्नाटों में
कैसे मंजिल पाऊँ मैं ?
कलरव, सूनेपन में बदला
सूरज आज नहीं जागा
सिंहासन ने मौन धरा पर
मन का पाप नहीं भागा
उपवासी मुद्रा लालचमय
कैसे खुशी मनाऊँ मैं ?
मंदिर के परिसर में देखो
गौरैया के पंख कट रहे
उन्हें बचाए कौन यहाँ तो
आपस मे इंसान बँट रहे
लुटती मर्यादा भारत की
कैसे चुप हो जाऊँ मैं ?