" तुम आओ न"
लगे घृणित वे सब कुछ मुझको, जो अब तक थे मनभावन
सूनी सूनी लगे डगर ये, सूना सूना सावन
प्रीति राह में फिर पायल झनकाओ न, तुम आओ न
देख रहा हूँ राह तुम्हारी कब से मैं, तुम आओ न।
जानी पहचानी चीजें भी अब लगती अनजानी
ललचाकर मुझको, मिलने में करती आनाकानी
आकर इनसे परिचय मेरा कराओ न, तुम आओ न
देख रहा हूँ राह तुम्हारी कब से मैं तुम आओ न।
बूंदे मन को तृप्त न करती, उल्टे प्यास बढ़ाये
नहर किनारा सूख गया है, फूल सभी मुरझाए
फूलों में फिर से खुशबू दे जाओ न, तुम आओ न
देख रहा हूँ राह तुम्हारी कब से मैं, तुम आओ न।
सुबह सुबह वो सैर पे जाना, मेरे मन न भाए
खिड़की से तेरी जब तक कोई पैगाम न आये
आकर अपना दर्शन मुझे कराओ न, तुम आओ न
देख रहा हूँ राह तुम्हारी कब से मैं, तुम आओ न।
तुमको मैंने पूजा, तुमको दिल में सदा सजाया
शब्द शब्द तुम से जोड़े हैं, तुमपर गीत रचाया
इन गीतों को अपने कण्ठ सजाओ न, तुम आओ न
देख रहा हूँ राह तुम्हारी कब से मैं, तुम आओ न।
जब सम्मुख तुम थी, तो सब कुछ अजब ग़ज़ब होता था
बिनमतलब के शाम के चक्कर, का मतलब होता था
शामों को फिर से मतलब दे जाओ न, तुम आओ न
देख रहा हूँ राह तुम्हारी कब से मैं, तुम आओ न।
सभी समस्याएं तब अपनी, झट से हल होती थीं
मेल नयन का होता जब, दिल मे हलचल होती थी
नैनाचार करो, हलचल फैलाओ न, तुम आओ न
देख रहा हूँ राह तुम्हारी कब से मैं, तुम आओ न।
-मोहित मिश्र