Tuesday 14 August 2018

स्वतन्त्रता के 71 वर्ष और हम

मैंने कभी कहा था-

लड़ो झोंक दो पूरी ताकत तुम अपनी
रोना मत तुम हार के अबकी दौर में
आज जो सूरज है बादल में छुपा हुआ
फिर चमकेगा खुलकर अगली भोर में

जी हाँ, आज वो पावन दिन है, जब ग़ुलामी के बादलों में छुपे हुए सूरज ने सर जमीं-ए-हिन्द (सर जमीने हिन्द) पर अपनी सिंदूरी किरणों के साथ स्वतन्त्रता की सुबह में प्रवेश किया।

यह आजादी एक तरफ हर्ष का विषय थी, तो वहीं विभाजन का दंश भी झेल रही थी। दो मुल्क हो गए, भारत, और पाकिस्तान।
हमारी सत्ता अब हमारे हाथों में थी। लोकतांत्रिक व्यवस्था को हमारी संविधान सभा ने हमें सौंपा।
अपने भारत के भाग्य विधाता अब हम थे, न कि सुदूर इंग्लैंड में बैठे लोग।

हमें मिला अपनी सरकार चुनने का अधिकार। अपने पसन्द के व्यक्ति को अपना प्रतिनिधि बनाने का अधिकार। वोट देने का अधिकार।

स्वतन्त्रता, समानता, संस्कृति...आदि आदि मौलिक अधिकार।

देश में सरकारें बनती बिगड़ती रहीं। आदरणीय नेहरू जी से लेकर श्री नरेन्द्र मोदी जी तक हमने कई प्रधानमंत्री भी बदले।

सरकारों के बनने बिगड़ने के इस क्रम में बहुत सी ऐसी चीजें भी हैं, जो तब भी थीं, अब भी हैं। उनमें से कुछ प्रमुख चीजें हैं-
1- असुरक्षित महिलाएं, 2- प्रदूषण, 3- मरते हुए किसान, 4- जातियाँ, 5- आरक्षण, 6- कुशिक्षा (अर्थात गलत तरीके से दी जा रही शिक्षा)...आदि।

आज स्थिति ये है कि घर से किसी भी काम के लिए निकली कोई स्त्री जब वापस लौटकर घर आती है, तो उसके साथ होते हैं लोगों के कमैंट्स, घूरती हुई डरावनी आँखों की भयावहता, और समाज कुछ तथाकथित संस्कारियों के प्रश्न, जो उसके चरित्र पर उंगलियां उठाते हैं।
नेशनल ब्यूरो ऑफ क्राइम रिकार्ड्स 2013 के अनुसार देश में 24923 रेप के केस हुए। इसमें से 24470 रेप के केस ऐसे थे, जिनमें लड़की के निकट सम्बन्धियो या परिचितों ने इस कुकृत्य को अंजाम दिया था। यानी करीब 98% केस ऐसे होते हैं, जिनमें लड़की के निकट सम्बन्धियों द्वारा रेप किया जाता है।
एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार भारत मे लगभग 71% रेप केस अनरिपोर्टेड रह जाते हैं।
यदि इन आंकड़ो को भी मिला लिया जाए तो देश मे लगभग 90000 स्त्रियाँ प्रतिवर्ष बलात्कार का शिकार होती हैं। छेड़छाड़ की घटनाओं को भी शामिल कर लिया जाए, तो यह आँकड़ा लाखों में पहुँच जाएगा।

मैंने जब प्रदूषण के बारे में पढ़ना शुरू किया तो पता लगा कि दुनिया के सबसे गन्दे 15 शहरों में 12 भारत के हैं। कानपुर, फरीदाबाद, गया, वाराणसी, पटना, दिल्ली, और लखनऊ दुनिया के साथ सबसे गन्दे शहर हैं जिनकी कुल जनसंख्या लगभग 3 करोड़ है।

किसानों के बारे में जब पढ़ना शुरू किया, तो ज्ञात हुआ कि वर्ष 1998 से लेकर 2014 तक करीब 3 लाख किसानों ने आत्महत्याएं की। यह सरकारी आंकड़ा है, किन्तु अन्य रिपोर्ट्स बताती हैं कि वास्तविक आंकड़ा इससे दस गुना से भी अधिक है। इन आत्महत्याओं की प्रमुख वजहों में नई इकनोमिक नीति 1991, व अन्य सरकारी नीतियों को भी शामिल किया गया है।

जब मैंने जातियों के बारे में पढ़ना शुरू किया, तो पता चला कि भारत मे व्यक्ति धर्म बदल सकता है, जाति नहीं। व्यक्ति को सुविधाएं उसके हालात को देखकर नहीं, जाति को देखकर दी जा रही हैं। इस वजह से रोज नए झगड़े हो रहे हैं, और राजनेता उसपर राजनीति करते रहते हैं।
इसी की देन आरक्षण है। सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय के अनुसार आरक्षण की सीमा 50% से अधिक नहीं हो सकती, फिर भी बहुत से ऐसे राज्य हैं जहाँ यह आँकड़ा बहुत अधिक है। वहीं, आये दिन लोग रेल की पटरियों पर कोटे के लिए बैठ जाते हैं और वोटबैंक के चक्कर मे सरकारें उनकी मांगें भी मान लेती हैं।
इस आरक्षण की नीति ने देश में जातिवाद को अब तक बनाये रखा है, और इसी पर हर पार्टियाँ राजनीति कर महज अपने वोटबैंक के लिए कार्य करती हैं, साथ ही महत्वपूर्ण पदों पर कई योग्य उम्मीदवार नहीं पहुँच पाते।

इन सभी के यदि मूल कारण को देखें, तो वह है शिक्षा व्यवस्था, जो कि आज कुव्यवस्था में बदल चुकी है। हमारे पाठ्यक्रम इस आधार पर बनाएं गए हैं, कि हमें हर विषय की सतही जानकारी हासिल हो जाये, और हम कोई नौकरी पाने के योग्य हो जाएं। संस्कारों के विकास की ओर ध्यान ही नहीं है। हम दूसरों से कैसे पेश आना है, हमें अपनी उलझनों को कैसे सुलझाना है, परिवार और समाज के प्रति हमारी क्या जिम्मेदारियाँ हैं, यह सभी कुछ पाठ्यक्रमों से गायब है। इनके स्थान पर हमें यह सिखाया जाता है, कि "पढ़ लो, नहीं तो नौकरी नहीं मिलेगी, और भूखों मरना पड़ेगा।"
"कम्पटीशन बहुत बढ़ गया है।"
"हर क्लासमेट तुम्हें हराने में लगे हैं। सभी तुम्हारे प्रतियोगी हैं, जिनसे तुम्हें आगे निकलना है।"

ऐसी शिक्षा के बाद हर इंसान एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लग जाता है, और दूसरे की विफलता पर वह खुश होने लगता है।
कोई उसके आगे निकलने वाला होता है, तो वह उसकी राह में कांटें बिछाने की कोशिश में लग जाता है।

अब हम यह उम्मीद करें कि ऐसी व्यवस्था में पले बढ़े ये बच्चे आगे चलकर समाज मे प्रेम और सद्भावना फैलाएंगे, तो यह बस मुंगेरी लाल के हसीन सपनों जैसा है, जो कभी पूरा नहीं होने वाला। बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय।

फिल्में, इंटरनेट पर अश्लील सामग्रियाँ, पत्रिकाएँ यह सब बन्द हो जाएं, तो शायद किसी दिन स्त्रियाँ सुरक्षित हो जाएं।  यदि लड़कों को "लड़कियाँ शारीरिक रूप से कमजोर होती हैं" की जगह "लड़कियों की महत्ता, समाज में उनके रोल, और किसी व्यक्ति को पूर्ण बनाने में उनके योगदान" के बारे में बताया जाए, तो ही कुछ परिवर्तन के आसार हैं। पुरुषों के मन में स्त्रियों के लिए इज्जत और समानता की भावना संस्कारों से आएगी, नौकरियों से नहीं।

प्रदूषण का तो ठेका लोगों ने सरकार को दे रखा है। लोगों को इस बात से भी समस्या थी, कि पन्नी ने नाली जाम कर रखी है, और इस बात से भी समस्या है कि पन्नी बैन क्यों हो गयी। ज्यों ही कोई सब्ज़ी वाला पूछ बैठता है कि क्या झोला लेकर आये हैं, लगते हैं सरकार को कोसने। नदियों की सफाई की जिम्मेदारी भी सरकार की, इनकी नहीं, क्योंकि ये तो सभी फूल, पत्तियाँ, अस्थियाँ, मुर्दे शरीर, नालियों के कचरे सब कुछ नदियों में बहाने को तैयार हैं। पान खाएंगे, और उसी जगह पर जाकर थूकेंगे जहाँ लिखा है कि थूकना मना है। न जाने इनके अभिमान को कौन सी ठेस पहुंच जाती है। घरों का सारा कचरा सड़क पर फेंक आएंगे। AC, फ्रीज आदि का उपयोग जरूर करेंगे, यह जानते हुए भी कि AC हमारे शरीर और पर्यावरण के मध्य सामंजस्य को प्रभावित करती है, वहीं फ्रीज का पानी हमारी पाचन शक्ति को क्षीण करने के साथ साथ हमारी ऊर्जा को भी नष्ट करता है। उससे निकलने वाली खतरनाक गैसों की तो पूछिये ही मत। मजे की बात तो यह है कि यही लोग मंचों और लेखों में ग्लोबल वार्मिंग, प्रदूषण आदि मुद्दों पर जनता को जागरूक भी करते हैं।

5 साल का बच्चा जब एडमिशन करवाने जाता है, तब उससे उसकी जाति पूछी जाती है। और फिर उससे जातियों के मध्य समरसता स्थापित करने की उम्मीद करने लग जाते हैं लोग। बच्चा पैदा होता है तो उसे क्या पता कि जाति क्या होती है, पर थोड़ा सा बड़ा होने पर हम उनमें भी वह बीज बो ही देते हैं।

भ्रष्टाचार के मुद्दे को मैंने छोड़ दिया है, क्योंकि भ्रष्टाचारी तो देश की समस्त जनता है। कोई भी ऐसा नहीं, जिसका आचरण भ्रष्ट न हो।

हम देश को बनाने के लिए कुछ छोटे छोटे काम कर सकते हैं, जैसे गुटखा न खाएं, टॉफी, बिस्कुट आदि की पन्नियों व कचरे को हमेशा कूड़ेदान में डालें। नदियों में गन्दा पानी न जाने दें। जातिगत मुद्दों पर बहस न करें। एक दूसरे के प्रति सम्मान व समानता  का भाव रखें। कृतज्ञ बनें, हर उस शख्स के प्रति, जिसकी वजह से हमें कुछ भी मिला। जैसे किसानों की वजह से भोजन, सफाईकर्मियों की वजह से स्वच्छ परिवेश, माता पिता की वजह से जीवन, टैक्स देने वाले हर व्यक्ति की वजह से सुविधाएँ, और इन सबसे पूर्णता।

यह सब कुछ सुधर सकता है, यदि हम अपनी शिक्षा व्यवस्था को सुधारें। उसे जॉब ओरिएंटेड बनाकर न रखें। उसमें छोटी छोटी, मगर आवश्यक बातों का समावेश करें, जो हमारे सोचने के तरीकों, कार्य करने के तरीकों, व्यवहार के तरीकों, बात करने के तरीकों, व विभिन्न व्यक्तियों के प्रति हमारे नजरिये को बेहतर बना सके।
हमें आज स्वतन्त्रता दिवस पर यह प्रण करना करना होगा, कि हम स्वयं में यह छोटे छोटे बदलाव लाकर इस देश को समृद्धि और खुशहाली की ओर ले जाएंगे। यह ध्यान रखिये कि देश हमसे बनता है, जितना अंश इस देश का मैं हूँ, उतना ही आप हैं, उतना ही वह भी जो देश के सबसे गरीब घर में है, और उतना ही वह भी, जो देश के सबसे अमीर घर में है।
हमें मनवीर मधुर जी की इन पंक्तियों से हमेशा सीखते रहना चाहिए
"लुटाकर जान खुद इंसानियत की जान हो जाना
समर्पित यूँ, वतन की एक दिन पहचान हो जाना
किसी मजहब से ऊपर उठ जियो तो जिंदगी ऐसे
तुम्हारे नाम का मतलब हो हिंदुस्तान हो जाना"

     

Thursday 9 August 2018

लैंगिक सद्भावना में कमी : कारण व निवारण

लैंगिक सद्भावना में कमी : कारण व निवारण

अखबारों में आये दिन आ रही छेड़छाड़ और बलात्कार की खबरों से आहत हूँ। इनको रोकने के लिए कितने भी प्रयास किये जायें, वह कम ही साबित हो रहे हैं। मैं अक्सर इस विषय पर मंथन करता हूँ, कि यह सब क्यों होता है? कानून क्यों बेअसर हो जाते हैं? अपराधियों को उसका डर क्यों नहीं होता?
बहुत से दिन और रातें इसी पर विचार करते हुए आज मैं इसके मूलभूत कारणों पर पहुँचा हूँ। आइये देखते हैं-

1- फिल्में और प्रचार- फिल्मों में लड़कियों को एक ऑब्जेक्ट की तरह दिखाया जाता है, जिसमें कोई लड़का बस उसे हासिल करने की कोशिश करता रहता है। वहीं, जो खलनायक के रूप में होते हैं, वह भी नायक को परेशान करने के लिए उस लड़की को ही माध्यम बनाते हैं और उसे परेशान करते हैं।। प्रचारों में कोई भी सामग्री बेचनी हो, बिना स्त्रियों के अंग प्रदर्शन के वह नहीं होता। इन सामग्रियों को TV पर देखने वालों की मानसिकता पर विपरीत असर होता है।

2- अश्लील पत्रिकाएँ- बहुत सी पत्रिकाओं में अश्लील कहानियाँ, और लेख प्रकाशित होते हैं, जिन्हें बहुत से पाठक पढ़ते हैं। यह कहानियाँ भी उनकी मानसिकता पर असर डालती हैं और इन घटनाओं को जन्म देती हैं।

3- शिक्षा व्यवस्था- आज की शिक्षा व्यवस्था महज एक दर्जे से दूसरे दर्जे में पहुँचा देने भर की है। उनमें संस्कार के नाम पर कुछ भी नहीं है। आज के बच्चों के पाठ्यक्रम में ऐसी चीजें नहीं शामिल हैं, जो उन्हें सभी के प्रति समान भाव रखना सिखाएं। शिक्षा व्यवस्था महज परीक्षाओं और नौकरियों की ओर उन्मुख हैं।

4- इंटनरेट पर उपलब्ध अश्लील सामग्रियाँ- आज सैकड़ो वेबसाइट पर वीडियो, ऑडियो, व लिखित में अश्लील सामग्रियाँ उपलब्ध हैं, जिन तक सामान्य इंटरनेट उपभोक्ता की पहुँच है। साथ ही अन्य तमाम वेबसाइटों पर उपलब्ध प्रचार भी अमूमन अश्लील सामग्रियों के होते हैं, क्योंकि व्यक्ति जिस वेबसाइट या लिंक को खोलता है, उसी से जुड़ी हुई चीजें उसे प्रचार में मिलती हैं।

इन अमानवीय घटनाओं के निवारण हेतु सबसे आवश्यक है उन तत्वों को रोकना जहाँ से ऐसे कुत्सित विचार प्रवाहित होते हैं। इस सम्बंध में कुछ प्रमुख बिंदु निम्नवत हैं-

1- ऐसी फिल्मों और प्रचार सामग्रियों पर रोक लगाई जाए, जिनमें स्त्रियों को महज ऑब्जेक्ट के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है। साथ ही ऐसा करने वाले निर्देशक निर्माता को दंडित करने का भी प्रावधान हो।

2- शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन कर हर विद्यालय में एक काउंसलर नियुक्त किया जाए, जो बच्चों को उचित शिक्षा दे। साथ ही पाठ्यक्रम में ऐसे साहित्य सम्मिलित किये जायें, जो हमें एक जिम्मेदार नागरिक बनने, व सभी के प्रति सद्भाव रखने की ओर प्रेरित करें।

3- ऐसी सभी वेबसाइटों को ब्लॉक किया जाए, जिन पर अश्लील सामग्रियाँ उपलब्ध हों।

4- अश्लील सामग्रियाँ परोसने वाली हर पत्रिका को बैन किया जाए, व उन्हें दण्डित किया जाए।

 
मेरा यकीन है, जब यह मूलभूत परिवर्तन किए जाएंगे, तो ऐसी घटनाओं में क्रांतिकारी कमी देखने को मिलेगी। ऐसी शिक्षा व्यवस्था, और समाज से निकलकर ही व्यक्ति कानून व्यवस्था में भी जाता है। जब कोई पीड़िता न्याय की गुहार लिए आती है, तो वो भी ऐसे 'मौके' छोड़ना नहीं चाहते, और शब्दों से ही उसकी इज्जत तार तार करने में लगे होते हैं।

मेरा मानना है कि जब समाज से अश्लील सामग्रियों का लोप होगा, और उनकी जगह नेक विचार, सामाजिक सद्भाव, लैंगिक सद्भाव व समता के विचार प्रेषित किये जायेंगे, तभी हम वांछित परिणाम तक पहुँच सकते हैं।

आज के लोग यह भूल चुके हैं कि स्त्री और पुरुष मिलकर ही किसी समाज का निर्माण करते हैं। वो दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। पुरुष यह मान बैठा है कि वह अधिक शक्तिशाली है, और इसी वजह से ऐसी अपने अहंकार को चोट पहुँचते ही वह ऐसी घटनाओं को अंजाम देने लग जाता है।
हमें सही शिक्षा व्यवस्था को आवश्यकता है, साथ ही आवश्यकता यह भी है, कि आज की पीढ़ी को शिव के 'अर्धनारीश्वर' होने, और पत्नी के 'वामा' व 'सहधर्मचारिणी' होने का सही अर्थ समझाया जाए। इससे पुरुष के शक्तिशाली होने के अहंकार को तोड़ने में न केवल मदद मिलेगी अपितु स्त्रियों के प्रति उनमें अच्छे विचारों का भी समावेश होगा।

प्रेम-पत्र

प्रिये! तुम कहाँ हो? कैसी हो? इन सबके बारे में मुझे कुछ नहीं पता। सिर्फ कल्पनायें कर सकता हूँ, कि जहाँ हो, कुशल से हो। बीते एक साल में जीवन...