Saturday 20 October 2018

ग़ज़ल

छोटे कंधे, भारी जिम्मेदारी है
साथ नहीं कोई, कैसी लाचारी है

साहित्यिक शुचिता केवल अख़बारी है
मन के अंदर बसी सिर्फ़ मक्कारी है

अच्छे दिन की आशा ही आशा है या
आशा में बसती कोई चिंगारी है?

चमक दमक है, सम्मोहन है इसमें तो
कलियुग जैसी सीमेंटेड फुलवारी है

प्रेम कभी स्वीकार नहीं था दुनिया को
दुनिया ने तो बस नफ़रत स्वीकारी है

क्रांति क्रांति हर पल चिल्लाते रहते हो
क्या चिल्लाने की कोई बीमारी है

भक्तों चूमो चरण किन्तु यह ध्यान रहे
वह नेता है नहीं कोई अवतारी है

मानवता को राम बचाने आएंगे
इस आशा ने ही मानवता मारी है

जैसे भाव बसा कर 'वाह' किया तुमने
उसी भाव से 'मोहित' भी आभारी है

ग़ज़ल (गुलाब)

मेरी बगिया में खिला है आज इक प्यारा गुलाब
जिंदगी पाकर खुशी से खिलखिलाता सा गुलाब

मुश्किलों के बाद हैं खुशियां यही सिखला रहा
कंटकों के साथ रहकर नित्य मुस्काता गुलाब

माँ-पिता से दूर बच्चे का नहीं कोई वजूद
देख लो बिखरा पड़ा है डाल से टूटा गुलाब

जातियों के, मजहबों के, बंधनो को तोड़कर
प्रेम जीतेगा यकीनन, जीत की आशा गुलाब

सामना करते हुए रस्ते में बिखरे शूल का
आगे जो बढ़ता वही है अंत में पाता गुलाब

प्रेम है जीवन इसी जीवन से है अस्तित्व भी
प्रेम सबसे पुण्य पथ है प्रेम की गीता गुलाब

कशमकश ऐसी कि 'मोहित' सोचते हैं क्या कहें
है गुलाबों सा वो चेहरा या कि चेहरे सा गुलाब

Sunday 7 October 2018

मीठी बातें : छल या प्रेम

कभी कभी दिल सोचने पर मजबूर हो जाता है कि कोई इतनी मीठी बातें कैसे कर सकता है? उसकी मीठी बातें उस पर अटूट विश्वास पैदा कर देती हैं, वहीं अखबार में जब विश्वासघात की कोई घटना पढ़ते हैं, तो दिल बैठने लगता है। हमारे मन मे लगातार कुछ प्रश्न आ-आकर हमें सशंकित करने लगते हैं 'कहीं वो मीठी बातें कर हमें छलना तो नहीं चाहता? ', 'कहीं वह मेरा दैहिक, या आर्थिक शोषण तो नहीं करना चाहता?' इन प्रश्नों के जाल में उलझे हुए बीच बीच में एक यह डर भी मन में उठने लगता है 'मेरे मन मे उसके प्रति अविश्वास के ख़याल आ रहे हैं, लेकिन उसका प्यार सच हुआ तो?' यहीं हमारी सोचने समझने की क्षमता खो जाती है। इस तरह की स्थितियाँ जब हम अपने दोस्तों को बताते हैं, तो वह सामने वाले कि अग्नि परीक्षा लेने की सलाह देते हैं। हम भी उसे परखने की कोशिश करते हैं। इसकी वजह से कई रिश्ते जो मजबूती की तरफ अग्रसर रहते हैं, वह वापस टूटने की कगार पर पहुँच जाते हैं। ऐसे में, जब आपको रिश्तों की फ़िक्र है, साथ ही विश्वासघात का डर भी, तो इंसान को क्या करना चाहिए? यह एक बड़ा सवाल है, जो प्रायः अनुत्तरित रह जाता है। रिश्तों को जोड़ने, और जोड़े रहने के विषय में मैं तमाम प्रेमी युगलों, संयुक्त परिवारों, एकल परिवारों, बुजुर्गों आदि से मिला, व उनसे उनके अनुभव व विचार जानने की कोशिश की। आइये, हम भी एक प्रयास करते हैं प्रायः अनुत्तरित रह जाने वाले इन प्रश्नों के हल खोजने का।
रिश्तों को सहेज कर रखने के विषय में जिन तमाम लोगों व उनसे सम्बंधित घटनाओं से मैं रु-ब-रु हुआ, उन सबमें से कुछ न कुछ एक जैसा था। जिनके भी रिश्ते टूटे, उन सबकी प्रमुख वजह उनका 'अहंकार' था। झगड़े बहुत छोटी छोटी बातों से शुरू होते हैं जैसे "उसने मेरी बात क्यों नहीं मानी",  "जो मैं सोचता/सोचती हूँ वही सही है", "जब मैंने तुमसे कहा था कि ऐसा मत करना तो तुमने क्यों किया"।
हमारा अहंकार हम पर हावी होने लगता है, और हम सिर्फ अपनी सुनते हैं, कभी सामने वाले की जगह ख़ुद को रखकर यह समझने की कोशिश नहीं करते कि उसकी मानसिकता क्या है? वह क्या सोचती/सोचता है? आदि।
जब अहम पर चोट लगती है, तो उसे क्रोध में बदलते देर नहीं लगती। क्रोध में आकर हम बहुत कुछ ऐसा कर जाते हैं,  जिसके लिए हमें उम्र भर पछताना पड़ता है। कोई एक 'शब्द' ही किसी रिश्ते को तोड़ने के लिए पर्याप्त होता है।

दूसरी जो बात देखने को मिली वह है 'स्वार्थ'। मनुष्य का मूल स्वभाव है अपने हितों की रक्षा।  वह हमेशा अपने हितों की सोचता है, न कि अपने साथ वाले की। कोई मनुष्य किसी के साथ तभी तक रहता है, जब तक उसके अपने स्वार्थ सिद्ध होते रहें। परिवार-विच्छेदन हो जाता है इसी स्वार्थ के लिए। एक भाई अपने पत्नी व बच्चों को लेकर दूसरे से अलग रहने लग जाता है। माता-पिता को भी केवल तब तक साथ रखता है, जब तक उनसे उसकी जरूरतें पूरी होती रहती हैं। तुलसीदास ने भी लिखा है "स्वारथ पाइ करहिं सब प्रीती।" यदि किसी एक व्यक्ति से हमारी जरूरतें पूरी होती रहें, तो हमारे सारे रिश्ते बस उसी एक व्यक्ति तक सीमित रहेंगे।
रिश्तों की मजबूती बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि  हम अपने अहंकार को त्याग कर स्वार्थरहित जीवन जियें। हमें यह तय करना होगा कि रिश्ते अधिक आवश्यक हैं, या अपने अहम की तृप्ति।
किसी का मीठा बोलना प्रेम की वजह से है, या महज स्वार्थ हेतु इसकी पहचान करना भी बड़ा सरल है। व्यक्ति जब अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए आपके साथ होगा, तो वह किसी तरह अपने अहंकार को नियंत्रित रखने की कोशिश करेगा। उसपर किया गया चोट भी उसे गुस्सा नहीं दिलाएगा, उस सब को सहन करते हुए वह मीठी बातें करता रहेगा। वह आपके कामों में कभी टोका टाकी नहीं करेगा। आलोचना करने से बचेगा। वहीं जो व्यक्ति सम्बन्धों में अब स्वार्थ से ऊपर उठ चुका होगा, वह आपके गलत कामों पर, (जिनका उससे कोई सम्बन्ध न हो) आपकी आलोचना करेगा। आपके लिए उपयोगी कार्य में अपने काम छोड़कर भी आपका सहयोग करेगा। आपके जीवन के लिए आवश्यक चीजों को न करने पर गुस्सा भी करेगा, और आपको ख़ुश रखने की जायज़ कोशिश भी करेगा। निःस्वार्थ भाव से जुड़े व्यक्ति के पास आपको प्रभावित करने वाले प्रत्येक काम का एक उचित तर्क होगा।
आज के इस आर्थिक युग में रिश्तों को संजोकर रखना एक मुश्किल काम है, और इसमें अपने अहंकार और स्वार्थ रूपी जूती को बाहर उतारकर आना पड़ता है। रिश्ते सहेजने के लिए व्यक्ति को अहंकार शून्य होने की तरफ अग्रसर रहना होगा। ऐसे में बड़े बुजुर्गों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वे बच्चों को "उससे जुड़े रहो, कभी भी काम आ सकता है" की सीख देने के बजाय यह सीख दें कि "किसी काम को करने के पहले यह सोचो, कि यदि सामने वाला व्यक्ति तुम्हारे साथ वही करता तो तुम्हें कैसा लगता" । रिश्तों को हमने अनावश्यक इतना कॉम्प्लिकेटेड बना रखा है, जबकि थोड़े से आत्मसुधार के बाद यह बहुत सीधे और सरल तरीके से पूरी जिंदगी निभाये जा सकते हैं।
डॉ दिनेश त्रिपाठी 'शम्स' की रिश्तों से सम्बंधित यह पंक्तियाँ हमेशा ध्यान में रखें "बन्धु अपने आप से कुछ दिल लगाकर देखिये/ज़िंदगी का गीत है ये गुनगुनाकर देखिये/है बहुत आसान रिश्तों को बना लेना मगर/एक रिश्ते से जरा रिश्ता निभाकर देखिये।"

प्रेम-पत्र

प्रिये! तुम कहाँ हो? कैसी हो? इन सबके बारे में मुझे कुछ नहीं पता। सिर्फ कल्पनायें कर सकता हूँ, कि जहाँ हो, कुशल से हो। बीते एक साल में जीवन...