Sunday 21 January 2018

प्रेम और स्वार्थ

प्रेम और स्वार्थ
आधे अक्षरों से शुरू ये भाव
एक बार दोनों में युद्ध शरू हुआ
प्रेम ने पटखनी दे दी स्वार्थ को
वो इतिहास था।
इन दोनों में फिर युद्ध शुरू हुआ
इस बार मनुष्यों ने स्वार्थ के साथ दिया
इस बार प्रेम हार गया
न केवल हारा,
बल्कि मरने की स्थिति में पहुँच गया
यह समय वर्तमान है।

         -मोहित

Friday 12 January 2018

कहानी मरते अहसास की

मेरे अंतिम दिन निकट हैं
जल्द ही चल पड़ूँगा
परम धाम को।
एक कष्ट मुझे वहाँ भी सताएगा
और वो ये है
कि मुझे चार कंधों पर लादकर
न तो किसी ने मुझे अग्नि को सौंपा
न ही किसी ने मिट्टी दी।

इतना होने पर भी
मैं चाहता हूँ कि फिर आऊँ
मैं उस परमशक्ति से याचना करूँगा
पुनर्जन्म की।
मेरी चाहत है कि इस संसार मे विद्यमान रहूँ
और संसार मुझे ही नष्ट करने में जुटा है।

हर तरफ से मेरे शरीर पर प्रहार हो रहा है
कभी भूखे को नजरअंदाज करने पर
तो कभी पर स्त्री पर नजरें डालने पर।

आज तो हृदयाघात होते होते बचा
वो बस अपने पिता को मारने वाला था
पर रुक गया
क्योंकि उसका मोबाइल बज उठा था।

पर कब तक बचता रहूँगा
ऐसे हालात में
जब कोई रखना ही नहीं चाहता मुझे।
मैं ही तो जबरदस्ती गले पड़ना चाहता हूँ सबके
और जबरदस्ती कब तक बन्धा रहूँगा।

घायल और दुर्बल
बूढ़ा और असहाय
पड़ा रहता हूँ दुबककर
बस कभी कभी आ जाता हूँ
पैसे न कमाती हुई माँ से मिलने
लालच रहित कवि के पास
और छोटे बच्चों के साथ मुलाकात करने।
पर ये भी कब तक रखेंगे
माँ कब तक पैसे नहीं कमाएगी
मंच और प्रसिद्धि की लालच कवि के पास आ जायेगी
और बच्चे बड़े भी तो हो जाएंगे।

मुझे संघर्ष पसन्द है
इसलिए अब तक जीवित हूँ
पर जानता हूँ
मेरे अंतिम दिन निकट हैं।

                

हम नौका पर बैठ

हम नौका पर बैठ चलो उस पार चलें।

अब तक जिसने धर्म न जाना
कहता है ये धर्मयुद्ध है
खा जाएगा उसको कच्चा
दिखता ऐसा क्रूर क्रुद्ध है
आये दिन अखबारों में
रहती हैं खबर विवादों की
भोली जनता तो दीवानी
रही चुनावी वादों की
जहाँ शांति का परचम लहरे
हम ऐसे दरबार चलें
हम नौका पर बैठ चलो उस पार चलें।

जहाँ बेटियाँ रहें सुरक्षित
खेलें खाएं मस्त रहें
एक दूसरे की खुशियों में
सभी जहाँ मदमस्त रहें
जहाँ नीतियाँ न्याय परक हो
सत्ता का भुजदण्ड न हो
द्वेष, ईर्ष्या, लालच, कटुता
और जहाँ पाखण्ड न हो
हृदय खोलकर स्वागत होवे
आओ ऐसे द्वार चलें
हम नौका पर बैठ चलो उस पार चलें।

जहाँ के बच्चे भीख नहीं
शिक्षा के लिए समर्पित हों
संग्रह से सब दूर रहें
बस दान पुण्य को अर्पित हों
किसी हृदय की पीड़ा दूजे
की आंखों में छलक उठे
और किसी की खुशियों में
जन मन के नैना चमक उठें
जहाँ न कोई बंटवारा हो
हम ऐसे संसार चलें
हम नौका पर बैठ चलो उस पार चलें।

                  -महेंद्र कुमार मिश्र 'मोहित'

प्रेम-पत्र

प्रिये! तुम कहाँ हो? कैसी हो? इन सबके बारे में मुझे कुछ नहीं पता। सिर्फ कल्पनायें कर सकता हूँ, कि जहाँ हो, कुशल से हो। बीते एक साल में जीवन...