Wednesday 29 November 2017

ग़ज़ल (भूख)

खून चूस जनता का डाला फिर भी चैन नहीं तुमको
दाल और रोटी पर ताला फिर भी चैन नहीं तुमको।

एक बूँद जल को वो रोया भटका रोज दिवा निशि में
पी तुमने अंग्रेज़ी प्याला फिर भी चैन नहीं तुमको।

भूख भूख करती थी लाडो फिर चीखी बस प्राण गए
धूम धाम तुमने कर डाला फिर भी चैन नहीं तुमको।

राम राम करते हो नेता पर छूरी भर दी घर घर
पोत दिया उन पर भी काला फिर भी चैन नहीं तुमको।

आँख देख कर आया हूँ मैं जनता खूब सिसकती है
और मजे में तुम हो लाला फिर भी चैन नहीं तुमको।

खूब ग़ज़ब करते हो बातें शक की चांस नहीं रहती
बोल बोल कर देश खंगाला फिर भी चैन नहीं तुमको।

Sunday 12 November 2017

गंगा

गंगा
नदी नहीं है
जीवन है
और उसमें बहता जल
जल नहीं प्रेम है।
निकलती है गंगा
उछल कूद करती हुई
इधर से उधर दौड़ लगाती हुई
अपने बालपन में।
जैसे जैसे उम्र बढ़ती है
लोगों से परिचय बढ़ता है
लोग मिलने लगते हैं उसे।
एक दिन यूँ ही
यमुना ने अपना प्रेम न्योछावर कर दिया उसपर।
तबसे गंगा अकेली नहीं है
संग संग यमुना भी चलती है
पर देखो तो
कितना गहरा प्रेम है
यमुना ने समर्पित कर दिया अपना रूप रंग गंगा को
प्रेम की पराकाष्ठा।
तमाम मोड़ आते हैं गंगा के जीवन में
मुश्किलों में भी रास्ता बनाते हुए
विसर्प लेते हुए
अपने प्रौढ़ा अवस्था में पहुँचती है।
उसके सपने, उसके अपने
उसे तोड़ देते हैं
बिखर जाती है
कई धाराओं में
और अंततः
अपना कमाया हुआ
इकट्ठा किया हुआ
सब कुछ छोड़
विलीन हो जाती
चिर निद्रा में
शांति में।
हाँ!
गंगा नदी नहीं जीवन है।

प्रेम-पत्र

प्रिये! तुम कहाँ हो? कैसी हो? इन सबके बारे में मुझे कुछ नहीं पता। सिर्फ कल्पनायें कर सकता हूँ, कि जहाँ हो, कुशल से हो। बीते एक साल में जीवन...