Tuesday 29 May 2018

आरुष्म

तुम सुनो! मैं तो तुम्हें बस प्यार करना चाहता हूँ।

बैठकर गंगा किनारे घाट की उन सीढ़ियों पर
एक चुटकी लालिमा लेकर किसी दिन सूर्य से फिर
मैं तुम्हारी माँग का शृंगार करना चाहता हूँ
तुम सुनो! मैं तो तुम्हें बस प्यार करना चाहता हूँ।

अधर पर रखकर के रक्तिम पंखुड़ी ताजे कमल की
और मलकर रंग गालों पर गुलाबों का गुलाबी
मैं तुम्हारे रूप को गुलजार करना चाहता हूँ
तुम सुनो! मैं तो तुम्हें बस प्यार करना चाहता हूँ।

मैं तुम्हारी इक हथेली को हथेली में पकड़कर
और काँधे पर टिकाकर सिर तुम्हें निज अंक भरकर
स्वप्न जो देखे उन्हें साकार करना चाहता हूँ
तुम सुनो! मैं तो तुम्हें बस प्यार करना चाहता हूँ।

                  

Sunday 13 May 2018

मातृ दिवस

आज नींद खुली तो सबसे पहले माँ को फ़ोन किया। पहले तो वह थोड़ा परेशान हुईं कि आज सुबह सुबह मैंने क्यों फ़ोन किया है, फिर जब उन्हें आज के दिन की शुभकामनाएं दीं, तो वह बहुत खुश हुईं। मेरी परीक्षाओं के बारे में पूछा। फ़ोन रखने से पहले एक अजीब सा सवाल किया उन्होंने "तुमने मुझे बधाइयाँ दी हैं, या आज के दिन को"। मैंने कुछ जवाब दिए बिना 'प्रणाम' कहा और फ़ोन रख दिया, क्योंकि मेरे फ़ोन में बस 1 ही मिनट बात करने का बैलेंस था, जिसमें से 50 सेकंड से अधिक हो चुके थे। माँ के मोबाइल में भी बैलेंस नहीं था, तो बात वहीं बन्द करनी पड़ी।

मैं इस प्रश्न पर विचार करता रहा, कि कितनी गहरी सम्वेदनाओं से युक्त है यह प्रश्न। बार-बार दिमाग में वही सवाल गूँज रहा था "तुमने किसे बधाइयाँ दी हैं, मुझे या आज के दिन को?"
रोज मेरी आदत है, कि सोकर उठता हूँ, तो धरती मैया को तीन बार प्रणाम करके दर्पण में अपना चहेरा देखता हूँ, न कि हाथ की लकीरें। लकीरें इसलिए नहीं देखता, क्योंकि लकीरों में जो लिखा होगा, वो तो होकर ही रहेगा। मुझे तो ये देखना रहता है, कि मेरी आँखों की चमक मुझे कहाँ तक ले जाएगी। आज दर्पण देखने की हिम्मत न हुई, क्योंकि मैं खुद से नजरें मिला पाने में असमर्थ था और वजह, बस वो छोटा सा सवाल, जिसका जवाब खोजने की कोशिश में मैं अब भी था।

स्नान ध्यान के बाद थोड़ा जल पिया, और फिर उसी स्थान पर शून्य सा बैठा रहा। काफी देर बाद मोबाइल पर एक नोटिफिकेशन ने मेरा ध्यान तोड़ा। मैंने पापा को फ़ोन लगाया, और उनसे ही बात करके रख दिया। हिम्मत नहीं जुटा पाया इस बात की, कि मम्मी से फिर बात करूँ।
नाश्ता रोज से थोड़ा कम किया, 2 की जगह सिर्फ 1 आलू का पराठा, और चाय।

फेसबुक से होकर गुजरा, तो बहुत सी कविताएं, ग़ज़लें, शेर, लेख पढ़ने को मिले। कुछ तस्वीरें भी मिलीं, जो सच को उजागर करती हैं।

राजेश राही जी ने पोस्ट किया था-
" तुमने सौ बार जिन रिश्तों की दुहाई दी है
क्या कभी उनमें वो शिद्दत भी दिखाई दी है
माँ ने फिर देख लो लौटा दिया बचपन मेरा
माँ ने फिर खोल के पल्लू से मिठाई दी है"

मुनव्वर राना जी की पंक्तियों से तो पूरा फेसबुक भरा था। जैसे-

"मेरी ख्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
माँ से इस तरह लिपटूँ कि बच्चा हो जाऊँ।"

"मेरे सारे गुनाहों को वो धो देती है
माँ गुस्से में होती है तो रो देती है"

"किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई
मैं घर मे सबसे छोटा था, मेरे हिस्से में माँ आई"

आलोक श्रीवास्तव जी की रचना भी पढ़ने को मिली-

"चिंतन, दर्शन, जीवन, सर्जन, रूह, नजर पर छाई अम्मा
सारे घर का शोर-शराबा, सूनापन, तन्हाई अम्मा।

बाबू जी गुजरे आपस में सब चीजें तकसीम हुईं तब
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा।"

ऐसे और भी बहुत से लोगों ने बहुत कुछ लिखा था। नाम और पंक्तियाँ गिनाते गिनाते तो सुबह हो जाएगी।
कुछ लोगों ने आदर्शों से उठकर हकीकत लिखा था।

और कुछ लोगों ने कुछ नहीं। मैंने दरअसल कुछ विशेष अवसरों पर कुछ पोस्ट करने से दूरी बना ली है। बस सबकी पोस्ट पढ़ लेता हूँ, और समाज के बारे में फेसबुक पर व्यक्त उनकी चिंताओं को समझने की कोशिश करता हूँ, जो सिर्फ फेसबुक तक ही रहती हैं, समाज में कभी नहीं पहुँचती।

आज भी यही किया दिन भर। सबको पढ़ा बारी बारी से दिन भर। एक फ़िल्म देखी, परीक्षा की तैयारी की, एक मित्र से मिला, और सोया।

दिन भर सब चीजों का अवलोकन करने के बाद, शाम को जब चाय पीकर फिर हॉस्टल आ रहा था, तभी फिर दिमाग में सुबह का वो प्रश्न आया, जिसे मैंने अनुत्तरित छोड़ रखा था। मैंने पापा को फ़ोन लगाया। जैसा कि हमेशा होता आया है, उन्होंने काल बैक की। मैंने पापा से बात की, उनसे अपने फ़ोन में बैलेंस डलवाने का निवेदन किया। किन्तु मम्मी से बात करने को न कह सका। दरअसल, बात ही क्या करता, क्योंकि जहाँ बात छोड़ी थी, वहीं से शुरू कर पाने का सामर्थ्य न था मुझमें।

सच तो ये है, कि सच से वाकिफ हो गया हूँ,  और सच ये है, कि मैंने माँ को नहीं, आज के दिन को ही बधाई दी थी।

मैं रोज सुबह तो उन्हें फ़ोन नहीं करता, अक्सर शाम को करता हूँ, या रात में डिनर के बाद। तो सिर्फ आज ही क्यों किया?
माँ के लिए सिर्फ एक दिन?
इतना भी तो बिजी नहीं रहता हूँ, कि उन्हें फ़ोन न कर पाऊँ।

माँ हमेशा मुझे सिखाती रहती है, और आज उनके इस सवाल ने जीवन की सबसे बड़ी सीख दी।
आज समझ आया #मातृ_दिवस का असली मतलब।

और हाँ, कल से हाथ की रेखाएँ और आँखों की चमक, दोनों देखूँगा, ताकि जान सकूँ, कि मेरे सपने मेरी लकीरों के मुताबिक बदल रहे हैं, या फिर मेरी लकीरें, मेरे सपनों से एकीकार हो रही हैं।

धन्यवाद माँ, धन्यवाद मातृ दिवस।

जानता हूँ, उपकारों से उऋण नहीं हो सकता, होना भी नहीं चाहता हूँ। बस बेटे का धर्म निभाता जाऊँगा, पूरी ईमानदारी से।

इतना ही कहूँगा, और करूँगा भी-

"चार दिनों के जीवन में बस इतना सा उद्देश्य मेरा
जब तक साँसें हैं अपना कर्तव्य निभाता जाऊँ मैं।"

प्रेम-पत्र

प्रिये! तुम कहाँ हो? कैसी हो? इन सबके बारे में मुझे कुछ नहीं पता। सिर्फ कल्पनायें कर सकता हूँ, कि जहाँ हो, कुशल से हो। बीते एक साल में जीवन...