Friday 16 February 2018

खोता हुआ बचपन


मैं ढूंढ रहा था एक रोज
कुछ बच्चों में मेरा बचपन।

मैं बसन्त की लहरों में इक गाँव गया
मैंने देखा कुछ भैंस चराते बच्चों को
मैं ठहर गया
हिम्मत करके ये पूछ लिया मैंने आखिर
क्या खेल कूद अब नहीं तुम्हारे होते हैं?
एक बोला
साहब रोज काम पर जाता हूँ
दिन भर की मेहनत करके जब वापस आता
दो जून के भोजन किसी तरह खा पाता हूँ।
फिर चले गए वो
उनसे रुककर मैंने कुछ बतियाना चाहा
पर उनको फ़िकर शीघ्र काम पर जाने की थी।

फिर मैंने भी अपनी राह चुनी
इस बार एक दरवाजे पर
चिल्लाने की कुछ ध्वनि आयी
मैंने थोड़ा सा ध्यान दिया
एक बालक की आवाजें थीं
मोबाइल की माँग थी उसकी
वह बार बार ये कहता था
मोबाइल दे दो
गेम खेलना है मुझको।
माँ की थोड़ी सी विवशता थी
उसकी तनख्वाह न आई थी
फिर क्या था
बच्चे की वह जिद रौद्र रूप में बदल गयी
और पास पड़े चाकू से उसने वार किया
माँ की चीख सुनी मैंने
अंदर आया फिर देखा ये
लथपथ थी माँ रक्त बह रहे थे उसके।
मैन देखा
बचपन अब बचपन नहीं रहा।
वह बड़ा हुआ अब
या कहें कि
अब तो
आता नहीं कोई बचपन
है कहीं मोबाइल की डिमांड
फिर आभासी दुनिया मे जाकर
ठुकराकर यथार्थ को
बचपन मरता है
या कही गरीबी में पड़कर
जीने की इच्छा शक्ति
काम करवाती है।
पर एक बात मैं जान गया
अब बचपन की दुनिया ही नहीं
यह तो बस एक कल्पना है
जो दिखती है कविताओं में।
अब क्या होगा इस मानव का
जो सुनता नहीं पिता और माँ की बातों को
चलने की ताकत पाते ही
उसका बचपन अब बड़ा हुआ
चाहे वो काम पर जाना हो
या मोबाइल पर गेम और आभासी दुनिया
इन सबने बचपन मारा है।

हैं मिले मुझे ऐसे
अनगिनत उदाहरण जो
मुझको विश्वास दिलाते हैं
अब आती सिर्फ जवानी है
अब खो ही गया समझो बचपन
जब ढूंढ रहा था एक रोज
कुछ बच्चों में मेरा बचपन।

प्रेम-पत्र

प्रिये! तुम कहाँ हो? कैसी हो? इन सबके बारे में मुझे कुछ नहीं पता। सिर्फ कल्पनायें कर सकता हूँ, कि जहाँ हो, कुशल से हो। बीते एक साल में जीवन...