Saturday 20 October 2018

ग़ज़ल

छोटे कंधे, भारी जिम्मेदारी है
साथ नहीं कोई, कैसी लाचारी है

साहित्यिक शुचिता केवल अख़बारी है
मन के अंदर बसी सिर्फ़ मक्कारी है

अच्छे दिन की आशा ही आशा है या
आशा में बसती कोई चिंगारी है?

चमक दमक है, सम्मोहन है इसमें तो
कलियुग जैसी सीमेंटेड फुलवारी है

प्रेम कभी स्वीकार नहीं था दुनिया को
दुनिया ने तो बस नफ़रत स्वीकारी है

क्रांति क्रांति हर पल चिल्लाते रहते हो
क्या चिल्लाने की कोई बीमारी है

भक्तों चूमो चरण किन्तु यह ध्यान रहे
वह नेता है नहीं कोई अवतारी है

मानवता को राम बचाने आएंगे
इस आशा ने ही मानवता मारी है

जैसे भाव बसा कर 'वाह' किया तुमने
उसी भाव से 'मोहित' भी आभारी है

No comments:

Post a Comment

प्रेम-पत्र

प्रिये! तुम कहाँ हो? कैसी हो? इन सबके बारे में मुझे कुछ नहीं पता। सिर्फ कल्पनायें कर सकता हूँ, कि जहाँ हो, कुशल से हो। बीते एक साल में जीवन...