Thursday 15 November 2018

ग़ज़ल

नज़र झुकाए खुद में ही मुस्काता है
मुझे देख कर अक्सर वो शर्माता है।

जाने कितने रंग समेटे है तितली,
इन्द्रधनुष भी देख उसे ललचाता है।

पतझड़ में बस पत्ते टूटा करते हैं,
पेड़ वही का वहीं खड़ा रह जाता है...

उँगली से मिट्टी पर इक चेहरा रचकर
पागल मन घण्टों उससे बतियाता है।

वह मुस्काती है तो उसके अधरों की
प्रतिछाया से क्षितिज लाल हो जाता है।

तुम्हें इस तरह गढ़ा गया है देख तुम्हें
खुदा खुदाई पर खुद के  इतराता है।

'मोहित' उसको दूर कभी जाने मत दो
जो रिश्तों पर जमी बर्फ़ पिघलाता है।

3 comments:

  1. Bohot hi khoobsurat ghazal... "Patjhad mein bas patte toota karte hn Ped wnhi ka wnhi khada reh jata hai"... Bohot khoob👏...." Jo rishto par jami barf pighlata hai " waah.... Keep this level of writing up and up...

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  2. बहुत बढ़िया.!

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