Saturday 28 September 2019

प्रेम-पत्र

प्रिये!
तुम कहाँ हो? कैसी हो? इन सबके बारे में मुझे कुछ नहीं पता। सिर्फ कल्पनायें कर सकता हूँ, कि जहाँ हो, कुशल से हो। बीते एक साल में जीवन में क्या परिवर्तन आये, इनके बारे में लिखना एक मुश्किल क्रिया है। कुछ-कुछ बताना हो तो यही बताऊँगा, कि अब खुश रहने का प्रयास करने लगा हूँ। इस एक साल में बहुत-सी यादें साथ जुड़ीं। तुम्हारे बगैर जीने को भी सोचा, पर मुमकिन न हो सका। तुमने कहा था न, कि तुम मेरी प्रतीक्षा में हो। बहुत भरोसा है तुम्हारी इस बात पर। भरोसा है कि वर्ष बीतेगा। भरोसा है कि वे अपेक्षित परिणाम आएंगे जिनके लिए हमने अलग होना स्वीकार किया। भरोसा है कि हम तुम मिलकर वह सब करेंगे, जिन्हें बीते एक वर्ष में हमने अवकाश पर रखा था। भरोसा है कि जब हम मिलेंगे, तो रिश्ते की पुरानी जड़ों से नई ताज़गी का एहसास समेटे एक वृक्ष उगेगा, जो पहले से अधिक हरियाली और छाया लिए होगा। मोहकता और सद्गन्ध के नए पुष्प उगेंगे जिनमें प्रेम युक्त मादकता के सुमधुर फल विकसित होंगे। फल ही तो चाहिए था न हमें, हर उस काम का, जो हम कर रहे। गीता तो तुमसे ही सीखी मैंने। तुमने कहा था कि क्या होगा वो देखा जाएगा, पर हमें क्या करना है ये अभी देखना होगा। तुम्हारी याद में जीने का एक महत्वपूर्ण काम कर रहा हूँ। फल की चिंता से मुक्त होकर जी रहा हूँ। चिंतामुक्त हो इस बात को गोविंद के अधीन कर इस आस में हूँ कि वह सब कुछ मनवांछित करेंगे। कन्हैया की लीला तो वही जानते हैं, पर आशा तो की ही जा सकती है न।
बीते एक साल में तुम्हारी ज़िंदगी मे होने वाला एक भी परिवर्तन मुझे ज्ञात नहीं। तुमने कहा था बात नहीं करेंगे, तो एक भी बार प्रयास नहीं किया। तुम्हारी बात तो माननी ही थी। तुमने जीवन में शामिल होते ही प्रेम की तरल फुहारों से युक्त एक नव पथ का सृजन आरम्भ किया था। मेरी सारथी भी तुम्हीं थीं। तुम्हें जीवन की रेखा सौंपकर निश्चिन्त था मैं। जीवन के इस अकस्मात मोड़ का अंदाजा भी न था। अब जी रहा हूँ, और तुमसे इतना तो सीख लिया है कि कैसे जीना है। एक लड़की होना एक लड़का होने से अधिक मुश्किल है। तुम्हारी इसी बात को सबसे पहले सीखा था मैंने और अब इस सीख का अनुपालन कर अपने मन की बहुत सी बातें मन के ही एक कोने में रख भाव प्रवाह को रोककर वह करने की कोशिश में रहता हूँ, जो मुझे करना चाहिए। कर्म पथ भी तो तुम्हीं से सीखा। जीवन को एक उद्देश्य दिया है तुमने। उद्देश्य पूरा होगा या नहीं, यह तो समय की परतों के हटने के बाद ही ज्ञात होगा, पर मैं तुम्हें यह विश्वास अवश्य दिला सकता हूँ कि मेरे प्रयास में कहीं से भी कोई अपूर्णता न होगी। तुमसे मिलकर पूर्णता का सही अर्थ जाना है मैंने। जहाँ तुम हो, वहीं पूर्ण हूँ मैं। तुम्हारी इच्छानुरूप ही सब कर रहा हूँ। हाँ, यह जरूर है, कि बिना तुम्हारे कुछ अच्छा नहीं लग रहा। रोज की हलचल साझा करना चाहता हूँ तुम्हारे साथ। आज कहाँ गया? किससे मिला? दिन सामान्य रहा या विशेष? यह सब कुछ बता देना चाहता हूँ तुम्हें। जीना चाहता हूँ तुम्हारे साथ प्रत्येक पल में। बहना चाहता हूँ तुम्हारे निश्छल प्रेम की श्वेत नदी में। रहना चाहता हूँ तुम्हारी बाहों के उस महफूज घेरे में और सो जाना चाहता हूँ एक ऐसी निश्चिन्तता भरी नींद जो तुम्हारे सपनों से भी ज्यादा आराम देती हो।
मैं जानता हूँ कि तुमसे मिले बिना यह पत्र भी तुम तक नहीं पहुँचेगा, किंतु तब भी मैं लिखना चाहता हूँ। मैं लिखना चाहता हूँ हर वो भाव जिनमें तुम हो। तुमसे मिलने का पल पास आता जा रहा है, और तब तक इस पत्र को इस प्रेरणा हेतु सुरक्षित रखूँगा कि अलगाव के समय किये गए वचन निभाने ही होंगे। यह पत्र मैं फिर पढूँगा, और जब तुम मिल जाओगी, तो तुम्हें भी पढ़ाऊंगा, ताकि तुम जान सको कि इस एक साल का सार क्या रहा? यह उन तमाम लेखों, कविताओं, और डायरी के पन्नों से अलग है जिनमें तुम हो। इसे सहेज कर रखना क्योंकि यह हमारे जीवन के इतिहास का वर्तमान है।

जीवन भर के लिए मेरा प्यार...
तुम्हारे आनंदित जीवन की प्रार्थना में
तुम्हारा...मैं

Thursday 2 May 2019

जरूरत जातियों को खत्म करने की

पृथ्वी पर मानव की उत्पत्ति जलीय जीवों से मानी जाती है। विभिन्न धर्मों के ग्रन्थों के अनुसार सर्वप्रथम 2 मनुष्य हुए, और उन्हीं से फिर मानवों का विकास होता रहा और आज मनुष्यों की वैश्विक जनसंख्या 8 अरब पहुँच चुकी है। भारत की बात करें तो यहाँ लगभग 125 करोड़ लोग निवास करते हैं। ये लोग विभिन्न धर्मों, जातियों, उपजातियों में विभाजित हैं। मनुष्यों के विभिन्न में वर्गों में बंटवारे का पहला साक्ष्य ऋग्वेद के दसवें मंडल से मिलता है। तब से लेकर आज तक यह विभाजन बढ़ता ही गया है। महज दो मनुष्यों से शुरू हुई मानव की विकास यात्रा में सिर्फ हिंदुस्तान में ही हम आज लगभग 7500 जातियों के साथ जी रहे हैं।
वर्णों के विभाजन से वर्गों के विभाजन तक पहुँचना कुछ लोगों के लिए भले ही हितकारी रहा हो, किन्तु एक मनुष्य के रूप में हमारा नुकसान ही हुआ है। आपसी सामंजस्य और भाई चारे से हम कोसों दूर होते जा रहे हैं। भारत की वर्तमान राजनीति में कुछ दलों का तो आधार ही जातीयता है। अलग-अलग जातियों के हितों के रक्षक बनकर लोग नित नए-नए राजनैतिक दल बना दे रहे हैं। बहुत से गैर राजनीतिक संगठन भी इस बाबत तीव्रता से काम कर रहे हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, व हरिजन को आधार बनाकर न जाने कितने संगठन आज काम कर रहे हैं। जातीय वैमनष्यता को बढ़ावा देकर अपना उल्लू सीधा करना इन सबका प्रमुख उद्देश्य रहा है।
संविधान लागू होने के साथ ही शुरू हुई आरक्षण की व्यवस्था ने भी इस दूरी को बढाने का ही काम किया है। इससे एक वर्ग एक वोट बैंक में बंटकर रह गया है, और आरक्षण की नीति में कोई बदलाव करके कोई भी राजनैतिक दल अपने वोट बैंक को कोई नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता। इसी के चलते आज हम एक ऐसे दौर में पहुँच गए हैं, जहाँ व्यक्ति के काम, विचार, और योग्यता से ज्यादा महत्वपूर्ण उसकी जाति हो गयी है। बीते कुछ वर्षों में जातियों से जुड़े हुए हिंसक आंदोलन भी खूब देखने को मिले हैं। इन हिंसक आंदोलनों के अतिरिक्त अलग-अलग जातियों के नेताओं की मूर्तियों को तोड़ने का क्रम भी जारी रहा है।
ऐसे में हमें यह विचार करने की आवश्यकता है कि हम इस आपसी भेदभाव को कैसे दूर कर सकते हैं। हमें जरूरत है एक ऐसे परिवेश का निर्माण करने की जहाँ जातियों से सम्बंधित कोई भी भेदभाव न रहे। किसी व्यक्ति के साथ सिर्फ इसलिए गलत व्यवहार न हो, कि वह किसी और जाति का है।
देश का संविधान भी "एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए" संकल्पित है, और इसी संविधान को हमने "अधिनियमित, आत्मार्पित और अंगीकृत" किया है। संविधान के इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु आज आवश्यकता आ पड़ी है कि सरकार संसद में जाति निषेध बिल लेकर आये, और देश से जातियों को पूरी तरह समाप्त कर दे। हर व्यक्ति के साथ उसके विचारों, और प्रतिभा के अनुरूप व्यवहार किया जाए, न कि उसकी जाति के अनुरूप। इस बिल के जरिये यह सुनिश्चित किया जाए कि देश में समस्त जाति आधारित संगठन, व नीतियाँ बन्द हों, व देश को एक इकाई मानते हुए सभी के साथ समान व्यवहार हो। इसके साथ ही यह भी स्पष्ट हो, कि हमारी पहचान केवल और केवल भारतीय होने की हो, न कि किसी जाति के व्यक्ति के रूप में।
इस देश को एकता के सूत्र में पिरोने की मंशा को मूर्त रूप तभी दिया जा सकेगा, जब इस देश से जातियों का निषेध हो सकेगा।

Sunday 2 December 2018

ग़ज़ल (सेल्फी)

देख रहा हूँ आज सुबह से ही खोई खोई सी हो
बोलो भी क्या बात हो गयी क्यों तुम मुझसे रूठी हो?

उगता सूरज, उड़ते पक्षी, गंगा तट और इंद्रधनुष
एक साथ ही दिखे जहाँ सब ऐसी कोई खिड़की हो

तुमने कभी नहीं जतलाया पर मुझको मालूम है ये
चाह रही हो प्रोफाइल पर संग में अपनी सेल्फी हो

मन में जितने भाव उठ रहे सब में हो बस तुम ही तुम
सम्मोहन का ऐसा जादू कहो कहाँ से सीखी हो

खिल उठता है रोम रोम, धड़कन की धक-धक बढ़ती है
नज़र झुकाकर कुछ मुस्काकर जब तुम 'लव यू' कहती हो

Thursday 15 November 2018

ग़ज़ल

नज़र झुकाए खुद में ही मुस्काता है
मुझे देख कर अक्सर वो शर्माता है।

जाने कितने रंग समेटे है तितली,
इन्द्रधनुष भी देख उसे ललचाता है।

पतझड़ में बस पत्ते टूटा करते हैं,
पेड़ वही का वहीं खड़ा रह जाता है...

उँगली से मिट्टी पर इक चेहरा रचकर
पागल मन घण्टों उससे बतियाता है।

वह मुस्काती है तो उसके अधरों की
प्रतिछाया से क्षितिज लाल हो जाता है।

तुम्हें इस तरह गढ़ा गया है देख तुम्हें
खुदा खुदाई पर खुद के  इतराता है।

'मोहित' उसको दूर कभी जाने मत दो
जो रिश्तों पर जमी बर्फ़ पिघलाता है।

Saturday 20 October 2018

ग़ज़ल

छोटे कंधे, भारी जिम्मेदारी है
साथ नहीं कोई, कैसी लाचारी है

साहित्यिक शुचिता केवल अख़बारी है
मन के अंदर बसी सिर्फ़ मक्कारी है

अच्छे दिन की आशा ही आशा है या
आशा में बसती कोई चिंगारी है?

चमक दमक है, सम्मोहन है इसमें तो
कलियुग जैसी सीमेंटेड फुलवारी है

प्रेम कभी स्वीकार नहीं था दुनिया को
दुनिया ने तो बस नफ़रत स्वीकारी है

क्रांति क्रांति हर पल चिल्लाते रहते हो
क्या चिल्लाने की कोई बीमारी है

भक्तों चूमो चरण किन्तु यह ध्यान रहे
वह नेता है नहीं कोई अवतारी है

मानवता को राम बचाने आएंगे
इस आशा ने ही मानवता मारी है

जैसे भाव बसा कर 'वाह' किया तुमने
उसी भाव से 'मोहित' भी आभारी है

ग़ज़ल (गुलाब)

मेरी बगिया में खिला है आज इक प्यारा गुलाब
जिंदगी पाकर खुशी से खिलखिलाता सा गुलाब

मुश्किलों के बाद हैं खुशियां यही सिखला रहा
कंटकों के साथ रहकर नित्य मुस्काता गुलाब

माँ-पिता से दूर बच्चे का नहीं कोई वजूद
देख लो बिखरा पड़ा है डाल से टूटा गुलाब

जातियों के, मजहबों के, बंधनो को तोड़कर
प्रेम जीतेगा यकीनन, जीत की आशा गुलाब

सामना करते हुए रस्ते में बिखरे शूल का
आगे जो बढ़ता वही है अंत में पाता गुलाब

प्रेम है जीवन इसी जीवन से है अस्तित्व भी
प्रेम सबसे पुण्य पथ है प्रेम की गीता गुलाब

कशमकश ऐसी कि 'मोहित' सोचते हैं क्या कहें
है गुलाबों सा वो चेहरा या कि चेहरे सा गुलाब

Sunday 7 October 2018

मीठी बातें : छल या प्रेम

कभी कभी दिल सोचने पर मजबूर हो जाता है कि कोई इतनी मीठी बातें कैसे कर सकता है? उसकी मीठी बातें उस पर अटूट विश्वास पैदा कर देती हैं, वहीं अखबार में जब विश्वासघात की कोई घटना पढ़ते हैं, तो दिल बैठने लगता है। हमारे मन मे लगातार कुछ प्रश्न आ-आकर हमें सशंकित करने लगते हैं 'कहीं वो मीठी बातें कर हमें छलना तो नहीं चाहता? ', 'कहीं वह मेरा दैहिक, या आर्थिक शोषण तो नहीं करना चाहता?' इन प्रश्नों के जाल में उलझे हुए बीच बीच में एक यह डर भी मन में उठने लगता है 'मेरे मन मे उसके प्रति अविश्वास के ख़याल आ रहे हैं, लेकिन उसका प्यार सच हुआ तो?' यहीं हमारी सोचने समझने की क्षमता खो जाती है। इस तरह की स्थितियाँ जब हम अपने दोस्तों को बताते हैं, तो वह सामने वाले कि अग्नि परीक्षा लेने की सलाह देते हैं। हम भी उसे परखने की कोशिश करते हैं। इसकी वजह से कई रिश्ते जो मजबूती की तरफ अग्रसर रहते हैं, वह वापस टूटने की कगार पर पहुँच जाते हैं। ऐसे में, जब आपको रिश्तों की फ़िक्र है, साथ ही विश्वासघात का डर भी, तो इंसान को क्या करना चाहिए? यह एक बड़ा सवाल है, जो प्रायः अनुत्तरित रह जाता है। रिश्तों को जोड़ने, और जोड़े रहने के विषय में मैं तमाम प्रेमी युगलों, संयुक्त परिवारों, एकल परिवारों, बुजुर्गों आदि से मिला, व उनसे उनके अनुभव व विचार जानने की कोशिश की। आइये, हम भी एक प्रयास करते हैं प्रायः अनुत्तरित रह जाने वाले इन प्रश्नों के हल खोजने का।
रिश्तों को सहेज कर रखने के विषय में जिन तमाम लोगों व उनसे सम्बंधित घटनाओं से मैं रु-ब-रु हुआ, उन सबमें से कुछ न कुछ एक जैसा था। जिनके भी रिश्ते टूटे, उन सबकी प्रमुख वजह उनका 'अहंकार' था। झगड़े बहुत छोटी छोटी बातों से शुरू होते हैं जैसे "उसने मेरी बात क्यों नहीं मानी",  "जो मैं सोचता/सोचती हूँ वही सही है", "जब मैंने तुमसे कहा था कि ऐसा मत करना तो तुमने क्यों किया"।
हमारा अहंकार हम पर हावी होने लगता है, और हम सिर्फ अपनी सुनते हैं, कभी सामने वाले की जगह ख़ुद को रखकर यह समझने की कोशिश नहीं करते कि उसकी मानसिकता क्या है? वह क्या सोचती/सोचता है? आदि।
जब अहम पर चोट लगती है, तो उसे क्रोध में बदलते देर नहीं लगती। क्रोध में आकर हम बहुत कुछ ऐसा कर जाते हैं,  जिसके लिए हमें उम्र भर पछताना पड़ता है। कोई एक 'शब्द' ही किसी रिश्ते को तोड़ने के लिए पर्याप्त होता है।

दूसरी जो बात देखने को मिली वह है 'स्वार्थ'। मनुष्य का मूल स्वभाव है अपने हितों की रक्षा।  वह हमेशा अपने हितों की सोचता है, न कि अपने साथ वाले की। कोई मनुष्य किसी के साथ तभी तक रहता है, जब तक उसके अपने स्वार्थ सिद्ध होते रहें। परिवार-विच्छेदन हो जाता है इसी स्वार्थ के लिए। एक भाई अपने पत्नी व बच्चों को लेकर दूसरे से अलग रहने लग जाता है। माता-पिता को भी केवल तब तक साथ रखता है, जब तक उनसे उसकी जरूरतें पूरी होती रहती हैं। तुलसीदास ने भी लिखा है "स्वारथ पाइ करहिं सब प्रीती।" यदि किसी एक व्यक्ति से हमारी जरूरतें पूरी होती रहें, तो हमारे सारे रिश्ते बस उसी एक व्यक्ति तक सीमित रहेंगे।
रिश्तों की मजबूती बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि  हम अपने अहंकार को त्याग कर स्वार्थरहित जीवन जियें। हमें यह तय करना होगा कि रिश्ते अधिक आवश्यक हैं, या अपने अहम की तृप्ति।
किसी का मीठा बोलना प्रेम की वजह से है, या महज स्वार्थ हेतु इसकी पहचान करना भी बड़ा सरल है। व्यक्ति जब अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए आपके साथ होगा, तो वह किसी तरह अपने अहंकार को नियंत्रित रखने की कोशिश करेगा। उसपर किया गया चोट भी उसे गुस्सा नहीं दिलाएगा, उस सब को सहन करते हुए वह मीठी बातें करता रहेगा। वह आपके कामों में कभी टोका टाकी नहीं करेगा। आलोचना करने से बचेगा। वहीं जो व्यक्ति सम्बन्धों में अब स्वार्थ से ऊपर उठ चुका होगा, वह आपके गलत कामों पर, (जिनका उससे कोई सम्बन्ध न हो) आपकी आलोचना करेगा। आपके लिए उपयोगी कार्य में अपने काम छोड़कर भी आपका सहयोग करेगा। आपके जीवन के लिए आवश्यक चीजों को न करने पर गुस्सा भी करेगा, और आपको ख़ुश रखने की जायज़ कोशिश भी करेगा। निःस्वार्थ भाव से जुड़े व्यक्ति के पास आपको प्रभावित करने वाले प्रत्येक काम का एक उचित तर्क होगा।
आज के इस आर्थिक युग में रिश्तों को संजोकर रखना एक मुश्किल काम है, और इसमें अपने अहंकार और स्वार्थ रूपी जूती को बाहर उतारकर आना पड़ता है। रिश्ते सहेजने के लिए व्यक्ति को अहंकार शून्य होने की तरफ अग्रसर रहना होगा। ऐसे में बड़े बुजुर्गों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वे बच्चों को "उससे जुड़े रहो, कभी भी काम आ सकता है" की सीख देने के बजाय यह सीख दें कि "किसी काम को करने के पहले यह सोचो, कि यदि सामने वाला व्यक्ति तुम्हारे साथ वही करता तो तुम्हें कैसा लगता" । रिश्तों को हमने अनावश्यक इतना कॉम्प्लिकेटेड बना रखा है, जबकि थोड़े से आत्मसुधार के बाद यह बहुत सीधे और सरल तरीके से पूरी जिंदगी निभाये जा सकते हैं।
डॉ दिनेश त्रिपाठी 'शम्स' की रिश्तों से सम्बंधित यह पंक्तियाँ हमेशा ध्यान में रखें "बन्धु अपने आप से कुछ दिल लगाकर देखिये/ज़िंदगी का गीत है ये गुनगुनाकर देखिये/है बहुत आसान रिश्तों को बना लेना मगर/एक रिश्ते से जरा रिश्ता निभाकर देखिये।"

Wednesday 19 September 2018

ग़ज़ल (हवा)

जाने कितनी खुशबुओं को साथ ले बहती हवा
ले के संदेशों को आई ज्यों कि हो चिट्ठी हवा।

पास कुछ पल बैठकर देखो कि ग़म मिट जाएंगे
बह रही है खिड़कियों से माँ की थपकी सी हवा।

ख़ुशनुमा मौसम बनाने, दूर करने को उमस
सागरों की गोद से बादल चुरा लाई हवा।

ले पतंगें दूर तक, आकाश भर मुस्कान की-
बन वजह, सबके हृदय को खूब है भाती हवा।

रूप को अपने तरल करके मधुरता भर रही
ज्यों हो कोई दार्जिलिंग के चाय की प्याली हवा।

मुस्कराती है वो लड़की और शर्माती भी है
जानती है इस समय भी देखती होगी हवा।

तुम भी दो पल बैठकर के हाले दिल को बाँट लो
हर अकेले शख़्स से है बात कुछ करती हवा।

लेके 'मोहित' के हृदय की धड़कनों की कम्पनें-
जाती है उस तक, व उसकी धड़कनें लाती हवा।

Tuesday 14 August 2018

स्वतन्त्रता के 71 वर्ष और हम

मैंने कभी कहा था-

लड़ो झोंक दो पूरी ताकत तुम अपनी
रोना मत तुम हार के अबकी दौर में
आज जो सूरज है बादल में छुपा हुआ
फिर चमकेगा खुलकर अगली भोर में

जी हाँ, आज वो पावन दिन है, जब ग़ुलामी के बादलों में छुपे हुए सूरज ने सर जमीं-ए-हिन्द (सर जमीने हिन्द) पर अपनी सिंदूरी किरणों के साथ स्वतन्त्रता की सुबह में प्रवेश किया।

यह आजादी एक तरफ हर्ष का विषय थी, तो वहीं विभाजन का दंश भी झेल रही थी। दो मुल्क हो गए, भारत, और पाकिस्तान।
हमारी सत्ता अब हमारे हाथों में थी। लोकतांत्रिक व्यवस्था को हमारी संविधान सभा ने हमें सौंपा।
अपने भारत के भाग्य विधाता अब हम थे, न कि सुदूर इंग्लैंड में बैठे लोग।

हमें मिला अपनी सरकार चुनने का अधिकार। अपने पसन्द के व्यक्ति को अपना प्रतिनिधि बनाने का अधिकार। वोट देने का अधिकार।

स्वतन्त्रता, समानता, संस्कृति...आदि आदि मौलिक अधिकार।

देश में सरकारें बनती बिगड़ती रहीं। आदरणीय नेहरू जी से लेकर श्री नरेन्द्र मोदी जी तक हमने कई प्रधानमंत्री भी बदले।

सरकारों के बनने बिगड़ने के इस क्रम में बहुत सी ऐसी चीजें भी हैं, जो तब भी थीं, अब भी हैं। उनमें से कुछ प्रमुख चीजें हैं-
1- असुरक्षित महिलाएं, 2- प्रदूषण, 3- मरते हुए किसान, 4- जातियाँ, 5- आरक्षण, 6- कुशिक्षा (अर्थात गलत तरीके से दी जा रही शिक्षा)...आदि।

आज स्थिति ये है कि घर से किसी भी काम के लिए निकली कोई स्त्री जब वापस लौटकर घर आती है, तो उसके साथ होते हैं लोगों के कमैंट्स, घूरती हुई डरावनी आँखों की भयावहता, और समाज कुछ तथाकथित संस्कारियों के प्रश्न, जो उसके चरित्र पर उंगलियां उठाते हैं।
नेशनल ब्यूरो ऑफ क्राइम रिकार्ड्स 2013 के अनुसार देश में 24923 रेप के केस हुए। इसमें से 24470 रेप के केस ऐसे थे, जिनमें लड़की के निकट सम्बन्धियो या परिचितों ने इस कुकृत्य को अंजाम दिया था। यानी करीब 98% केस ऐसे होते हैं, जिनमें लड़की के निकट सम्बन्धियों द्वारा रेप किया जाता है।
एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार भारत मे लगभग 71% रेप केस अनरिपोर्टेड रह जाते हैं।
यदि इन आंकड़ो को भी मिला लिया जाए तो देश मे लगभग 90000 स्त्रियाँ प्रतिवर्ष बलात्कार का शिकार होती हैं। छेड़छाड़ की घटनाओं को भी शामिल कर लिया जाए, तो यह आँकड़ा लाखों में पहुँच जाएगा।

मैंने जब प्रदूषण के बारे में पढ़ना शुरू किया तो पता लगा कि दुनिया के सबसे गन्दे 15 शहरों में 12 भारत के हैं। कानपुर, फरीदाबाद, गया, वाराणसी, पटना, दिल्ली, और लखनऊ दुनिया के साथ सबसे गन्दे शहर हैं जिनकी कुल जनसंख्या लगभग 3 करोड़ है।

किसानों के बारे में जब पढ़ना शुरू किया, तो ज्ञात हुआ कि वर्ष 1998 से लेकर 2014 तक करीब 3 लाख किसानों ने आत्महत्याएं की। यह सरकारी आंकड़ा है, किन्तु अन्य रिपोर्ट्स बताती हैं कि वास्तविक आंकड़ा इससे दस गुना से भी अधिक है। इन आत्महत्याओं की प्रमुख वजहों में नई इकनोमिक नीति 1991, व अन्य सरकारी नीतियों को भी शामिल किया गया है।

जब मैंने जातियों के बारे में पढ़ना शुरू किया, तो पता चला कि भारत मे व्यक्ति धर्म बदल सकता है, जाति नहीं। व्यक्ति को सुविधाएं उसके हालात को देखकर नहीं, जाति को देखकर दी जा रही हैं। इस वजह से रोज नए झगड़े हो रहे हैं, और राजनेता उसपर राजनीति करते रहते हैं।
इसी की देन आरक्षण है। सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय के अनुसार आरक्षण की सीमा 50% से अधिक नहीं हो सकती, फिर भी बहुत से ऐसे राज्य हैं जहाँ यह आँकड़ा बहुत अधिक है। वहीं, आये दिन लोग रेल की पटरियों पर कोटे के लिए बैठ जाते हैं और वोटबैंक के चक्कर मे सरकारें उनकी मांगें भी मान लेती हैं।
इस आरक्षण की नीति ने देश में जातिवाद को अब तक बनाये रखा है, और इसी पर हर पार्टियाँ राजनीति कर महज अपने वोटबैंक के लिए कार्य करती हैं, साथ ही महत्वपूर्ण पदों पर कई योग्य उम्मीदवार नहीं पहुँच पाते।

इन सभी के यदि मूल कारण को देखें, तो वह है शिक्षा व्यवस्था, जो कि आज कुव्यवस्था में बदल चुकी है। हमारे पाठ्यक्रम इस आधार पर बनाएं गए हैं, कि हमें हर विषय की सतही जानकारी हासिल हो जाये, और हम कोई नौकरी पाने के योग्य हो जाएं। संस्कारों के विकास की ओर ध्यान ही नहीं है। हम दूसरों से कैसे पेश आना है, हमें अपनी उलझनों को कैसे सुलझाना है, परिवार और समाज के प्रति हमारी क्या जिम्मेदारियाँ हैं, यह सभी कुछ पाठ्यक्रमों से गायब है। इनके स्थान पर हमें यह सिखाया जाता है, कि "पढ़ लो, नहीं तो नौकरी नहीं मिलेगी, और भूखों मरना पड़ेगा।"
"कम्पटीशन बहुत बढ़ गया है।"
"हर क्लासमेट तुम्हें हराने में लगे हैं। सभी तुम्हारे प्रतियोगी हैं, जिनसे तुम्हें आगे निकलना है।"

ऐसी शिक्षा के बाद हर इंसान एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लग जाता है, और दूसरे की विफलता पर वह खुश होने लगता है।
कोई उसके आगे निकलने वाला होता है, तो वह उसकी राह में कांटें बिछाने की कोशिश में लग जाता है।

अब हम यह उम्मीद करें कि ऐसी व्यवस्था में पले बढ़े ये बच्चे आगे चलकर समाज मे प्रेम और सद्भावना फैलाएंगे, तो यह बस मुंगेरी लाल के हसीन सपनों जैसा है, जो कभी पूरा नहीं होने वाला। बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय।

फिल्में, इंटरनेट पर अश्लील सामग्रियाँ, पत्रिकाएँ यह सब बन्द हो जाएं, तो शायद किसी दिन स्त्रियाँ सुरक्षित हो जाएं।  यदि लड़कों को "लड़कियाँ शारीरिक रूप से कमजोर होती हैं" की जगह "लड़कियों की महत्ता, समाज में उनके रोल, और किसी व्यक्ति को पूर्ण बनाने में उनके योगदान" के बारे में बताया जाए, तो ही कुछ परिवर्तन के आसार हैं। पुरुषों के मन में स्त्रियों के लिए इज्जत और समानता की भावना संस्कारों से आएगी, नौकरियों से नहीं।

प्रदूषण का तो ठेका लोगों ने सरकार को दे रखा है। लोगों को इस बात से भी समस्या थी, कि पन्नी ने नाली जाम कर रखी है, और इस बात से भी समस्या है कि पन्नी बैन क्यों हो गयी। ज्यों ही कोई सब्ज़ी वाला पूछ बैठता है कि क्या झोला लेकर आये हैं, लगते हैं सरकार को कोसने। नदियों की सफाई की जिम्मेदारी भी सरकार की, इनकी नहीं, क्योंकि ये तो सभी फूल, पत्तियाँ, अस्थियाँ, मुर्दे शरीर, नालियों के कचरे सब कुछ नदियों में बहाने को तैयार हैं। पान खाएंगे, और उसी जगह पर जाकर थूकेंगे जहाँ लिखा है कि थूकना मना है। न जाने इनके अभिमान को कौन सी ठेस पहुंच जाती है। घरों का सारा कचरा सड़क पर फेंक आएंगे। AC, फ्रीज आदि का उपयोग जरूर करेंगे, यह जानते हुए भी कि AC हमारे शरीर और पर्यावरण के मध्य सामंजस्य को प्रभावित करती है, वहीं फ्रीज का पानी हमारी पाचन शक्ति को क्षीण करने के साथ साथ हमारी ऊर्जा को भी नष्ट करता है। उससे निकलने वाली खतरनाक गैसों की तो पूछिये ही मत। मजे की बात तो यह है कि यही लोग मंचों और लेखों में ग्लोबल वार्मिंग, प्रदूषण आदि मुद्दों पर जनता को जागरूक भी करते हैं।

5 साल का बच्चा जब एडमिशन करवाने जाता है, तब उससे उसकी जाति पूछी जाती है। और फिर उससे जातियों के मध्य समरसता स्थापित करने की उम्मीद करने लग जाते हैं लोग। बच्चा पैदा होता है तो उसे क्या पता कि जाति क्या होती है, पर थोड़ा सा बड़ा होने पर हम उनमें भी वह बीज बो ही देते हैं।

भ्रष्टाचार के मुद्दे को मैंने छोड़ दिया है, क्योंकि भ्रष्टाचारी तो देश की समस्त जनता है। कोई भी ऐसा नहीं, जिसका आचरण भ्रष्ट न हो।

हम देश को बनाने के लिए कुछ छोटे छोटे काम कर सकते हैं, जैसे गुटखा न खाएं, टॉफी, बिस्कुट आदि की पन्नियों व कचरे को हमेशा कूड़ेदान में डालें। नदियों में गन्दा पानी न जाने दें। जातिगत मुद्दों पर बहस न करें। एक दूसरे के प्रति सम्मान व समानता  का भाव रखें। कृतज्ञ बनें, हर उस शख्स के प्रति, जिसकी वजह से हमें कुछ भी मिला। जैसे किसानों की वजह से भोजन, सफाईकर्मियों की वजह से स्वच्छ परिवेश, माता पिता की वजह से जीवन, टैक्स देने वाले हर व्यक्ति की वजह से सुविधाएँ, और इन सबसे पूर्णता।

यह सब कुछ सुधर सकता है, यदि हम अपनी शिक्षा व्यवस्था को सुधारें। उसे जॉब ओरिएंटेड बनाकर न रखें। उसमें छोटी छोटी, मगर आवश्यक बातों का समावेश करें, जो हमारे सोचने के तरीकों, कार्य करने के तरीकों, व्यवहार के तरीकों, बात करने के तरीकों, व विभिन्न व्यक्तियों के प्रति हमारे नजरिये को बेहतर बना सके।
हमें आज स्वतन्त्रता दिवस पर यह प्रण करना करना होगा, कि हम स्वयं में यह छोटे छोटे बदलाव लाकर इस देश को समृद्धि और खुशहाली की ओर ले जाएंगे। यह ध्यान रखिये कि देश हमसे बनता है, जितना अंश इस देश का मैं हूँ, उतना ही आप हैं, उतना ही वह भी जो देश के सबसे गरीब घर में है, और उतना ही वह भी, जो देश के सबसे अमीर घर में है।
हमें मनवीर मधुर जी की इन पंक्तियों से हमेशा सीखते रहना चाहिए
"लुटाकर जान खुद इंसानियत की जान हो जाना
समर्पित यूँ, वतन की एक दिन पहचान हो जाना
किसी मजहब से ऊपर उठ जियो तो जिंदगी ऐसे
तुम्हारे नाम का मतलब हो हिंदुस्तान हो जाना"

     

प्रेम-पत्र

प्रिये! तुम कहाँ हो? कैसी हो? इन सबके बारे में मुझे कुछ नहीं पता। सिर्फ कल्पनायें कर सकता हूँ, कि जहाँ हो, कुशल से हो। बीते एक साल में जीवन...